एक दिन अपना सहीफ़ा मुझ पे नाज़िल हो गया
उस को पढ़ते ही मिरी सारी ख़ताएँ मर गईं
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आँख सहमी हुई डरती हुई देखी गई है
तू ख़ुद अपनी मिसाल है वो तो है
ख़्वाब में या ख़याल में मुझे मिल
धूप छाँव का कोई खेल है बीनाई भी
ज़मीं का बोझ और उस पर ये आसमान का बोझ
एक उजड़ी हुई हसरत है कि पागल हो कर
मैं सामने से उठा और लौ लरज़ने लगी
एक मज्ज़ूब उदासी मेरे अंदर गुम है
लम्स को छोड़ के ख़ुशबू पे क़नाअ'त नहीं करने वाला
पेड़ सूखा हर्फ़ का और फ़ाख़ताएँ मर गईं
मैं अपनी आँख को उस का जहान दे दूँ क्या