न नींद आँखों में बाक़ी न इंतिज़ार रहा
ये हाल था तो कोई नेक काम क्या करते
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तिरे सुलूक का ग़म सुब्ह-ओ-शाम क्या करते
बस इक ख़ता की मुसलसल सज़ा अभी तक है
सभी अंधेरे समेटे हुए पड़े रहना
और कुछ तेज़ चलीं अब के हवाएँ शायद
किसी का जिस्म हुआ जान-ओ-दिल किसी के हुए
दुनिया में जो समझते थे बार-ए-गिराँ मुझे
खोने की बात और न पाने की बात है
हँसी हँसी में हर इक ग़म छुपाने आते हैं
ये ज़र्द चेहरा ये दर्द-ए-पैहम कोई सुनेगा तो क्या कहेगा
दिल के ज़ख़्मों को हरा करते हैं