न आए मेरे होंटों तक जो पैमाना नहीं आता
मिरी ख़ुद्दारियों को हाथ फैलाना नहीं आता
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जो छू लूँ आसमाँ पाँव की धरती खींच लेता है
मैं कैसे तय करूँ बे-सम्त रास्तों का सफ़र
जो भी देना है वो ख़ुदा देगा
नवाज़ा है मुझे पत्थर से जिस ने
लम्हा लम्हा बिखर रहा हूँ मैं
शाम-ए-अवध ने ज़ुल्फ़ में गूँधे नहीं हैं फूल
देख लिया क्या जाने शाम की सूनी आँखों में
राज़-ए-हस्ती से आश्ना न हुआ
तेरा होना न मान कर गोया
दिल का सुकून रिज़्क़ के हंगामे खा गए
वक़्त-ए-रुख़्सत वो आँसू बहाने लगे