लम्हा लम्हा बिखर रहा हूँ मैं
अपनी तकमील कर रहा हूँ मैं
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शाम-ए-अवध ने ज़ुल्फ़ में गूँधे नहीं हैं फूल
सीने में जब दर्द कोई बो जाता है
वक़्त-ए-रुख़्सत वो आँसू बहाने लगे
दिल का सुकून रिज़्क़ के हंगामे खा गए
दुनिया तेरे नाम से मुझ को पहचाने
ज़रा देखें तो दुनिया कैसे कैसे रंग भरती है
क़सीदा फ़त्ह का दुश्मन की तलवारों पे लिक्खा है
ये ज़ख़्म ज़ख़्म बदन और नम फ़ज़ाओं में
सफ़र का रुख़ बदल कर देखता हूँ
हयात-ओ-मर्ग का उक़्दा कुशा होने नहीं देता