शाम-ए-अवध ने ज़ुल्फ़ में गूँधे नहीं हैं फूल
तेरे बग़ैर सुब्ह-ए-बनारस उदास है
Javed Akhtar
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सफ़र का रुख़ बदल कर देखता हूँ
हसीं तुझ से तिरा हुस्न-ए-तलब था
ये ज़ख़्म ज़ख़्म बदन और नम फ़ज़ाओं में
रह-ए-क़रार अजब राह-ए-बे-क़रारी है
नामूस-ए-ज़िंदगी ग़म-ए-इंसाँ में ढाल कर
दुनिया तेरे नाम से मुझ को पहचाने
वक़्त-ए-रुख़्सत वो आँसू बहाने लगे
तेरा होना न मान कर गोया
मैं कैसे तय करूँ बे-सम्त रास्तों का सफ़र
क़सीदा फ़त्ह का दुश्मन की तलवारों पे लिक्खा है
दीवाना कर के मुझ को तमाशा किया बहुत
सीने में जब दर्द कोई बो जाता है