नामूस-ए-ज़िंदगी ग़म-ए-इंसाँ में ढाल कर
सूती है रात जाम से सूरज निकाल कर
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बे-दीन हुए ईमान दिया हम इश्क़ में सब कुछ खो बैठे
ये ज़ख़्म ज़ख़्म बदन और नम फ़ज़ाओं में
शाम-ए-अवध ने ज़ुल्फ़ में गूँधे नहीं हैं फूल
रह-ए-क़रार अजब राह-ए-बे-क़रारी है
राज़-ए-हस्ती से आश्ना न हुआ
जो छू लूँ आसमाँ पाँव की धरती खींच लेता है
दीवाना कर के मुझ को तमाशा किया बहुत
क़फ़स पे बर्क़ गिरे और चमन को आग लगे
हसीं तुझ से तिरा हुस्न-ए-तलब था
मैं कैसे तय करूँ बे-सम्त रास्तों का सफ़र
लम्हा लम्हा बिखर रहा हूँ मैं