जो छू लूँ आसमाँ पाँव की धरती खींच लेता है
वो मुझ को क्यूँ मिरे क़द से बड़ा होने नहीं देता
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क़सीदा फ़त्ह का दुश्मन की तलवारों पे लिक्खा है
दुनिया तेरे नाम से मुझ को पहचाने
क़फ़स पे बर्क़ गिरे और चमन को आग लगे
न आए मेरे होंटों तक जो पैमाना नहीं आता
देख लिया क्या जाने शाम की सूनी आँखों में
शाम-ए-अवध ने ज़ुल्फ़ में गूँधे नहीं हैं फूल
मैं कैसे तय करूँ बे-सम्त रास्तों का सफ़र
नामूस-ए-ज़िंदगी ग़म-ए-इंसाँ में ढाल कर
सफ़र का रुख़ बदल कर देखता हूँ
ये ज़ख़्म ज़ख़्म बदन और नम फ़ज़ाओं में
हयात-ओ-मर्ग का उक़्दा कुशा होने नहीं देता
तेरा होना न मान कर गोया