दश्त की प्यास किसी तौर बुझाई जाती
कोई तस्वीर ही पानी की दिखाई जाती
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नींद आती है मगर ख़्वाब नहीं आते हैं
तमाम शहर गिरफ़्तार है अज़िय्यत में
खींच लाई है तिरे दश्त की वहशत वर्ना
मुझ में ख़ुश्बू बसी उसी की है
कुछ अपनी फ़िक्र न अपना ख़याल करता हूँ
ज़ख़्म इस ज़ख़्म पे तहरीर किया जाएगा
इश्क़ था और अक़ीदत से मिला करते थे
मिरी जगह पे कोई और हो तो चीख़ उट्ठे
हमारा ख़्वाब अगर ख़्वाब की ख़बर रक्खे
साथ रोने न सही गीत सुनाने आते