ज़मीं
जिस से मुझ को शिकायत रही है
कि वो सब के हिस्से में है कुछ न कुछ
एक मेरे सिवा
जिस पे रहना ही कार-ए-अबस था
वही छोड़नी पड़ रही है
तो मैं इतना घबरा रहा हूँ
कि अब
मेरी यक-रंग रोज़ और शब
माह और साल की
सारी उक्ताहटें क्या हुईं
Ahmad Faraz
Habib Jalib
Mohsin Naqvi
Wasi Shah
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Rahat Indori
Anwar Masood
Jaun Eliya
Gulzar
Parveen Shakir
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(424) Peoples Rate This
तमाम क़ज़िया मकान भर था
सवाल गूँज के चुप हैं जवाब आए नहीं
मैं दश्त-ए-शेर में यूँ राएगाँ तो होता रहा
आख़िरी नज़्म
एक बीमार सुब्ह
एक मुंजमिद लम्हा
अम्मी की याद में
ये वाक़िआ तो लगे है सुना हुआ सा कुछ
इस तग-ओ-दौ ने आख़िरश मुझ को निढाल कर दिया
मौसम के मुताबिक़ कोई सामाँ भी नहीं है
तब्दीली
अजीब ख़्वाहिश