लाख मुझे दोश पे सर चाहिए
लाख मुझे दोश पे सर चाहिए
सैल-ए-बला को मिरा घर चाहिए
ज़ाद-ए-सफ़र से कहीं कटती है राह
दिल में फ़क़त शौक़-ए-सफ़र चाहिए
ख़ैर हो ताबानी-ए-ख़ुर्शीद की
शब के दुलारों को सहर चाहिए
अब ये तलब है कि हवस छोड़िए
पेड़ नहीं मुझ को समर चाहिए
माँगते हैं वो भी ज़मीं से मुराद
सू-ए-फ़लक जिन की नज़र चाहिए
अब उन्हें साहिल न डुबो दे जिन्हें
पार उतरने को भँवर चाहिए
मुझ को तो है ख़ाना-ख़राबी पसंद
आप कहें किस लिए घर चाहिए
मुझ सा भी मेआर-तलब कौन है
दुख भी मुझे कोई अमर चाहिए
कुछ नहीं आता तो ख़ुशामद ही सीख
हाथ में कोई तो हुनर चाहिए
पूछ तो लूँ राहज़न-ए-वक़्त से
मेरी कला या मिरा सर चाहिए
तेग़ की 'राशिद' थी ज़रूरत मुझे
मैं ये समझता था सिपर चाहिए
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