कोह संगीन हक़ाएक़ था जहाँ
हुस्न का ख़्वाब तराशा हम ने
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रंग उस महफ़िल-ए-तमकीं में जमाया न गया
अहद-ओ-पैमाँ कर के पैमाने के साथ
नक़ाब-ए-शब में छुप कर किस की याद आई समझते हैं
बादा-ए-गुल को सब अंदोह-रुबा कहते हैं
लड़खड़ाना भी है तकमील-ए-सफ़र की तम्हीद
रंग पर जब वो बज़्म-ए-नाज़ आई
इश्क़ ख़ुद अपनी जगह मज़हर-ए-अनवार-ए-ख़ुदा
दर्द आलूदा-ए-दरमाँ था 'रविश'
वो कहाँ दर्द जो दिल में तिरे महदूद रहा
वो निकहत-ए-गेसू फिर ऐ हम-नफ़साँ आई
ज़िंदगी जब से शनासा-ए-मुहालात हुई
क्या कहूँ क्या मिला है क्या न मिला