ज़िंदगी महव-ए-ख़ुद-आराई थी
आँख उठा कर भी न देखा हम ने
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वो शख़्स अपनी जगह है मुरक़्क़ा-ए-तहज़ीब
सख़्त जान-लेवा है सादगी मोहब्बत की
लगी है भीड़ बड़ा मय-कदे का नाम भी है
सवाल-ए-इश्क़ पर ता-हश्र चुप रहना पड़ा मुझ को
कौन कहता मुझे शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-जुनूँ
निकहत-ए-ज़ुल्फ़ को हम-रिश्ता-ए-जाँ कहता हूँ
हज़ार हुस्न दिल-आरा-ए-दो-जहाँ होता
वो निकहत-ए-गेसू फिर ऐ हम-नफ़साँ आई
जो राह अहल-ए-ख़िरद के लिए है ला-महदूद
तुझ पे खुल जाए कि क्या मेहर को शबनम से मिला
दर्द आलूदा-ए-दरमाँ था 'रविश'
तल्ख़ी-ए-ज़िंदगी अरे तौबा