बिखर गया हूँ फ़ज़ाओं में बू-ए-गुल की तरह
मिरे वजूद में वुसअत मिरी समा न सकी
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क़ुर्बत तिरी किस को रास आई
ज़ख़्म कुछ ऐसे मिरे क़ल्ब-ओ-जिगर ने पाए
सहरा-ए-ख़याल का दिया हूँ
ख़राब-ए-इश्क़ सही आलम-ए-शुहूद में हूँ
चुप हो क्यूँ ऐ पयम्बरान-ए-क़लम
ता'ना देते हो मुझे जीने का
हुस्न पाबंद-ए-हिना हो जैसे
हर अक्स ख़ुद एक आइना है
अजब चीज़ है ये मोहब्बत की बाज़ी
मा'मूरा-ए-अफ़्क़ार में इक हश्र बपा है
है ग़नीमत ये फ़रेब-ए-शब-ए-व'अदा ऐ दिल