गोया थे तो कोई भी नहीं था
अब चुप हैं तो शहर देखता है
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जुनूँ का राज़ मोहब्बत का भेद पा न सकी
अश्क यूँ बहते हैं सावन की झड़ी हो जैसे
सहरा-ए-ख़याल का दिया हूँ
हर एक घर का दरीचा खुला है मेरे लिए
बिखर गया हूँ फ़ज़ाओं में बू-ए-गुल की तरह
क़ुर्बत तिरी किस को रास आई
ज़ख़्म कुछ ऐसे मिरे क़ल्ब-ओ-जिगर ने पाए
चुप हो क्यूँ ऐ पयम्बरान-ए-क़लम
आ तुझ को ख़याल में बसाऊँ
अजब चीज़ है ये मोहब्बत की बाज़ी
हर अक्स ख़ुद एक आइना है
ये किस मक़ाम पे ठहरा है कारवान-ए-वफ़ा