पास-ए-आदाब-ए-वफ़ा था कि शिकस्ता-पाई
बे-ख़ुदी में भी न हम हद से गुज़रने पाए
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ये किस मक़ाम पे ठहरा है कारवान-ए-वफ़ा
बिखर गया हूँ फ़ज़ाओं में बू-ए-गुल की तरह
हर अक्स ख़ुद एक आइना है
हर एक घर का दरीचा खुला है मेरे लिए
अजब चीज़ है ये मोहब्बत की बाज़ी
क़ुर्बत तिरी किस को रास आई
ख़राब-ए-इश्क़ सही आलम-ए-शुहूद में हूँ
हुस्न पाबंद-ए-हिना हो जैसे
हम सकूँ पाएँगे सलमाओं में क्या
भँवर से लड़ो तुंद लहरों से उलझो
अश्क यूँ बहते हैं सावन की झड़ी हो जैसे
गोया थे तो कोई भी नहीं था