भँवर से लड़ो तुंद लहरों से उलझो
कहाँ तक चलोगे किनारे किनारे
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Wasi Shah
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जुनूँ का राज़ मोहब्बत का भेद पा न सकी
हम सकूँ पाएँगे सलमाओं में क्या
पास-ए-आदाब-ए-वफ़ा था कि शिकस्ता-पाई
मा'मूरा-ए-अफ़्क़ार में इक हश्र बपा है
हर एक घर का दरीचा खुला है मेरे लिए
ये दौर-ए-मसर्रत ये तेवर तुम्हारे
हर अक्स ख़ुद एक आइना है
हुस्न पाबंद-ए-हिना हो जैसे
चढ़ते हुए दरिया की अलामत नज़र आए
चुप हो क्यूँ ऐ पयम्बरान-ए-क़लम
गोया थे तो कोई भी नहीं था