हाथ रक्खा मैं ने सोते में कहाँ
बोले वो झुँझला के अब मैं सो चुका
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कोई पूछे न हम से क्या हुआ दिल
आगे कुछ बढ़ कर मिलेगी मस्जिद-ए-जामे 'रियाज़'
लुट गई शब को दो शय जिस को छुपाते थे बहुत
होगी वो दिल में जो ठानी जाएगी
ज़रूर पाँव में अपने हिना वो मल के चले
शोख़ी से हर शगूफ़े के टुकड़े उड़ा दिए
जो उन से कहो वो यक़ीं जानते हैं
'रियाज़' तौबा न टूटे न मय-कदा छूटे
क्या शराब-ए-नाब न पस्ती से पाया है उरूज
ले गया घर से उन्हें ग़ैर के घर का ता'वीज़
धोके से पिला दी थी उसे भी कोई दो घूँट
घर में दस हों तो ये रौनक़ नहीं होगी घर में