देखे बग़ैर हाल ये है इज़्तिराब का
क्या जाने क्या हो पर्दा जो उट्ठे नक़ाब का
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ख़त्म हो जाते जो हुस्न ओ इश्क़ के नाज़ ओ अदा
दर्द-ए-आग़ाज़-ए-मोहब्बत का अब अंजाम नहीं
पैग़ाम ज़िंदगी ने दिया मौत का मुझे
उर्दू-ए-मुअ'ल्ला
ग़ज़ल उस ने छेड़ी मुझे साज़ देना
कल हम आईने में रुख़ की झुर्रियाँ देखा किए
तालिब-ए-दीद पे आँच आए ये मंज़ूर नहीं
तड़प के रात बसर की जो इक मुहिम सर की
कोई आबाद मंज़िल हम जो वीराँ देख लेते हैं
वो आलम है कि मुँह फेरे हुए आलम निकलता है