ये जो दीवार पे कुछ नक़्श हैं धुँदले धुँदले
उस ने लिख लिख के मेरा नाम मिटाया होगा
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गुलशन को बहारों ने इस तरह नवाज़ा है
तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा
रात के अँधेरों को रौशनी वो क्या देगा
तुम क्या जानो अपने आप से कितना मैं शर्मिंदा हूँ
प्यास सदियों की है लम्हों में बुझाना चाहे
किस तरह भुलाएँ हम इस शहर के हंगामे
उस के जज़्बात से यूँ खेल रहा हूँ 'साग़र'
फूलों से बदन उन के काँटे हैं ज़बानों में
शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
ऐसी नहीं है बात कि क़द अपने घट गए
वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए