उस के जज़्बात से यूँ खेल रहा हूँ 'साग़र'
जैसे पानी में कोई आग लगाना चाहे
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मुझ में और तुझ में है ये फ़र्क़ तो अब भी क़ाइम
गुलशन को बहारों ने इस तरह नवाज़ा है
बैठे थे जब तो सारे परिंदे थे साथ साथ
फूलों से बदन उन के काँटे हैं ज़बानों में
शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
ये जो दीवार पे कुछ नक़्श हैं धुँदले धुँदले
तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा
शाम ढले ये सोच के बैठे हम अपनी तस्वीर के पास
ऐसी नहीं है बात कि क़द अपने घट गए
प्यास सदियों की है लम्हों में बुझाना चाहे
धूप में ग़म की मिरे साथ जो आया होगा