मुझ में और तुझ में है ये फ़र्क़ तो अब भी क़ाइम
तू मुझे चाहे मगर तुझ को ज़माना चाहे
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शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
देवता मेरे आँगन में उतरेंगे कब ज़िंदगी भर यही सोचता रह गया
ये जो दीवार पे कुछ नक़्श हैं धुँदले धुँदले
प्यास सदियों की है लम्हों में बुझाना चाहे
उस के जज़्बात से यूँ खेल रहा हूँ 'साग़र'
रात के अँधेरों को रौशनी वो क्या देगा
ऐसी नहीं है बात कि क़द अपने घट गए
तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा
फूलों से बदन उन के काँटे हैं ज़बानों में
इतना नाराज़ हो क्यूँ उस ने जो पत्थर फेंका
वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए
तुम क्या जानो अपने आप से कितना मैं शर्मिंदा हूँ