शाम ढले ये सोच के बैठे हम अपनी तस्वीर के पास
सारी ग़ज़लें बैठी होंगी अपने अपने मीर के पास
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कश्मीर की वादी में बे-पर्दा जो निकले हो
शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
मुझ में और तुझ में है ये फ़र्क़ तो अब भी क़ाइम
फूलों से बदन उन के काँटे हैं ज़बानों में
वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए
तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा
सामान तो गया था मगर घर भी ले गया
ऐसी नहीं है बात कि क़द अपने घट गए
ये जो दीवार पे कुछ नक़्श हैं धुँदले धुँदले
बैठे थे जब तो सारे परिंदे थे साथ साथ
प्यास सदियों की है लम्हों में बुझाना चाहे