कश्मीर की वादी में बे-पर्दा जो निकले हो
क्या आग लगाओगे बर्फ़ीली चटानों में
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किस तरह भुलाएँ हम इस शहर के हंगामे
ये जो दीवार पे कुछ नक़्श हैं धुँदले धुँदले
इतना नाराज़ हो क्यूँ उस ने जो पत्थर फेंका
तुम क्या जानो अपने आप से कितना मैं शर्मिंदा हूँ
मुझ में और तुझ में है ये फ़र्क़ तो अब भी क़ाइम
उस के जज़्बात से यूँ खेल रहा हूँ 'साग़र'
शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
सामान तो गया था मगर घर भी ले गया
धूप में ग़म की मिरे साथ जो आया होगा
प्यास सदियों की है लम्हों में बुझाना चाहे
ऐसी नहीं है बात कि क़द अपने घट गए