इतना नाराज़ हो क्यूँ उस ने जो पत्थर फेंका
उस के हाथों से कभी फूल भी आया होगा
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रात के अँधेरों को रौशनी वो क्या देगा
सामान तो गया था मगर घर भी ले गया
शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
उस के जज़्बात से यूँ खेल रहा हूँ 'साग़र'
प्यास सदियों की है लम्हों में बुझाना चाहे
ये जो दीवार पे कुछ नक़्श हैं धुँदले धुँदले
तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा
फूलों से बदन उन के काँटे हैं ज़बानों में
वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए
शाम ढले ये सोच के बैठे हम अपनी तस्वीर के पास
गुलशन को बहारों ने इस तरह नवाज़ा है