तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा
ताज-महल बन जाए अगर मुम्ताज़ कहाँ से लाऊँगा
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ऐसी नहीं है बात कि क़द अपने घट गए
मुझ में और तुझ में है ये फ़र्क़ तो अब भी क़ाइम
वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए
गुलशन को बहारों ने इस तरह नवाज़ा है
कश्मीर की वादी में बे-पर्दा जो निकले हो
ये जो दीवार पे कुछ नक़्श हैं धुँदले धुँदले
शाम ढले ये सोच के बैठे हम अपनी तस्वीर के पास
सामान तो गया था मगर घर भी ले गया
उस के जज़्बात से यूँ खेल रहा हूँ 'साग़र'
रात के अँधेरों को रौशनी वो क्या देगा
इतना नाराज़ हो क्यूँ उस ने जो पत्थर फेंका