तुम क्या जानो अपने आप से कितना मैं शर्मिंदा हूँ
छूट गया है साथ तुम्हारा और अभी तक ज़िंदा हूँ
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उस के जज़्बात से यूँ खेल रहा हूँ 'साग़र'
किस तरह भुलाएँ हम इस शहर के हंगामे
शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
मुझ में और तुझ में है ये फ़र्क़ तो अब भी क़ाइम
सामान तो गया था मगर घर भी ले गया
ऐसी नहीं है बात कि क़द अपने घट गए
प्यास सदियों की है लम्हों में बुझाना चाहे
वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए
धूप में ग़म की मिरे साथ जो आया होगा
तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा
इतना नाराज़ हो क्यूँ उस ने जो पत्थर फेंका