बैठे थे जब तो सारे परिंदे थे साथ साथ
उड़ते ही शाख़ से कई सम्तों में बट गए
Ahmad Faraz
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Habib Jalib
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रात के अँधेरों को रौशनी वो क्या देगा
सामान तो गया था मगर घर भी ले गया
कश्मीर की वादी में बे-पर्दा जो निकले हो
किस तरह भुलाएँ हम इस शहर के हंगामे
ऐसी नहीं है बात कि क़द अपने घट गए
वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए
मुझ में और तुझ में है ये फ़र्क़ तो अब भी क़ाइम
शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा
तुम क्या जानो अपने आप से कितना मैं शर्मिंदा हूँ
फूलों से बदन उन के काँटे हैं ज़बानों में