कौन कहता है बुलंदी पे नहीं हूँ 'सागर'
मेरी मेराज-ए-मोहब्बत मिरी रुस्वाई है
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गिर्या-ए-शैताँ
जान जाने को है और रक़्स में परवाना है
रहेगा प्यासों से पानी का फ़ासला कब तक
रोटी कपड़ा और मकान
अब इश्क़ नहीं मुश्किल बस इतना समझ लीजे
गले पड़ा मेहमान
क्यूँ हमारे ख़ून को पानी किए देते हैं आप
कितने चेहरे लगे हैं चेहरों पर
इक अजब चीज़ है शराफ़त भी
सिर्फ़ कहती रहोगी ऐ बेगम
बोला दुकान-दार कि क्या चाहिए तुम्हें
उठ चले वो तो इस में हैरत क्या