गिर्या-ए-शैताँ
हो रहा था एक दिन इक राह से मेरा गुज़र
यक-ब-यक जा कर पड़ी शैतान पर मेरी नज़र
चहको-पहको रो रहा था दो जहाँ के सामने
नौहा-ख़्वाँ था दोस्तो वो इक मकाँ के सामने
मैं ने पूछा रो रहा है किस लिए ख़ाना-ख़राब
रंग लाया आज क्या अल्लाह का तुझ पर इताब
और दहाड़ें मार के रोने लगा वो दिल-हज़ीं
ख़ौफ़ है बंदों का मैं अल्लाह से डरता नहीं
देख लीजे हज़रत-ए-'साग़र' ये है उस का मकाँ
हो रहा था गर्दिश-ए-अय्याम से जो बे-निशाँ
मैं ने समझाया करो मत वक़्त को अपने ख़राब
मैं ने बतलाया कि तुम खींचा करो कच्ची शराब
काम आएगी जहाँ में बस तुम्हारे तस्करी
फेर दो तुम मुल्क ओ मिल्लत के सरों पर भी छुरी
बरकतें बाक़ी नहीं हैं यार कार-ए-नेक में
फ़ाएदा ही फ़ाएदा है आज-कल इसमेक में
है ज़रूरी इस ज़माने में ज़माने के लिए
काम नंबर दो का कच्चे घर बनाने के लिए
बंदा-ए-इबलीस की ये होशियारी देखिए
बाप की दौलत समझ कर दे दी सारी देखिए
सब दिया है मैं ने उस को उस ने फिर भी लिख दिया
कारनामों पर मिरे मिन-फ़ज़्ल-ए-रब्बी लिख दिया
आदमी शैतान से आगे है हर हर ऐब में
रहने को अच्छा मकाँ है और जन्नत जेब में
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