तुम ने कहा था चुप रहना सो चुप ने भी क्या काम किया
चुप रहने की आदत ने कुछ और हमें बदनाम किया
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मुझ पे ऐसा कोई शे'र नाज़िल न हो
ख़ून ताज़ा
साँप सपेरा और मैं
पागल औरत
कुल जहाँ इक आईना है हुस्न की तहरीर का
सवाल-ए-सुब्ह-ए-चमन ज़ुल्मत-ए-ख़िज़ाँ से उठा
मिरी तन्हाइयों को कौन समझे
मैं बहारों के रूप में गुम था
जिसे लिख लिख के ख़ुद भी रो पड़ा हूँ
यूँ भी हुआ इक अर्से तक इक शे'र न मुझ से तमाम हुआ
असनाम-ए-माल-ओ-ज़र की परस्तिश सिखा गई