बहुत उम्मीद थी मंज़िल पे जा कर चैन पाएँगे
मगर मंज़िल पे जब पहुँचे तो नज़्म-ए-कारवाँ बदला
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क्या इसी को बहार कहते हैं
हुई सुब्ह जाम खनक उठे हुई शाम नग़्मे बिखर गए
यूँ बाग़बाँ ने मोहर लगा दी ज़बान पर
आए जो चंद तिनके क़फ़स में सबा के साथ
शबनम ने रो के जी ज़रा हल्का तो कर लिया
बू-ए-गुल बाद-ए-सबा लाई बहुत देर के बा'द
गुल-ओ-ग़ुंचा अस्ल में हैं तिरी गुफ़्तुगू की शक्लें
तीरा-ओ-तार फ़ज़ाओं में जिया हूँ अब तक
सौ बार आई होंटों पे झूटी हँसी मगर
ख़ुशी के फूल खिले थे तुम्हारे साथ कभी
दिल की धड़कन भी है उन को नागवार