क्या इसी को बहार कहते हैं
लाला-ओ-गुल से ख़ूँ टपकता है
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मुझ को तो ख़ून-ए-दिल ही पीना है
रह-ए-हयात चमक उठ्ठे कहकशाँ की तरह
गुलों के रूप में बिखरे हैं हर तरफ़ काँटे
ये तो मालूम है उन तक न सदा पहुँचेगी
गुल-ओ-ग़ुंचा अस्ल में हैं तिरी गुफ़्तुगू की शक्लें
सौ बार आई होंटों पे झूटी हँसी मगर
है तिश्ना-लबी लेकिन हम क्यूँ उसे ज़हमत दें
चंद तिनकों के सिवा क्या था नशेमन में मिरे
बिजली गिरेगी सेहन-ए-चमन में कहाँ कहाँ
बू-ए-गुल बाद-ए-सबा लाई बहुत देर के बा'द
हुई सुब्ह जाम खनक उठे हुई शाम नग़्मे बिखर गए