मता-ए-ग़म मिरे अश्कों ही तक नहीं महदूद
इन्हीं में टूटे सितारों को भी शुमार करो
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है तिश्ना-लबी लेकिन हम क्यूँ उसे ज़हमत दें
तीरा-ओ-तार फ़ज़ाओं में जिया हूँ अब तक
चंद तिनकों के सिवा क्या था नशेमन में मिरे
गुल-ओ-ग़ुंचा अस्ल में हैं तिरी गुफ़्तुगू की शक्लें
गुलों के रूप में बिखरे हैं हर तरफ़ काँटे
रह-ए-हयात चमक उठ्ठे कहकशाँ की तरह
शबनम ने रो के जी ज़रा हल्का तो कर लिया
बहुत उम्मीद थी मंज़िल पे जा कर चैन पाएँगे
ये तो मालूम है उन तक न सदा पहुँचेगी
यूँ बाग़बाँ ने मोहर लगा दी ज़बान पर
कटेगी कैसे गुल-ए-नौ की ज़िंदगी या-रब
हुई सुब्ह जाम खनक उठे हुई शाम नग़्मे बिखर गए