गुल-ओ-ग़ुंचा अस्ल में हैं तिरी गुफ़्तुगू की शक्लें
कभी खुल के बात कह दी कभी कर दिया इशारा
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ताबानी-ए-रुख़ ले कर तुम सामने जब आए
रह-ए-हयात चमक उठ्ठे कहकशाँ की तरह
शबनम ने रो के जी ज़रा हल्का तो कर लिया
मुझ को तो ख़ून-ए-दिल ही पीना है
ये तो मालूम है उन तक न सदा पहुँचेगी
यूँ बाग़बाँ ने मोहर लगा दी ज़बान पर
आए जो चंद तिनके क़फ़स में सबा के साथ
हमेशा दूर के जल्वे फ़रेब देते हैं
बू-ए-गुल बाद-ए-सबा लाई बहुत देर के बा'द
है तिश्ना-लबी लेकिन हम क्यूँ उसे ज़हमत दें
मता-ए-ग़म मिरे अश्कों ही तक नहीं महदूद
कटेगी कैसे गुल-ए-नौ की ज़िंदगी या-रब