झाँकते रात के गरेबाँ से
हम ने सौ आफ़्ताब देखे हैं
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अपनी आदत कि सब से सब कह दें
बे-वज्ह ज़ुल्म सहने की आदत नहीं रही
ये अलग बात कि वो मुझ से ख़फ़ा रहता है
ख़ाली बरामदों ने मुझे देख कर कहा
मुझे ख़बर न थी इस घर में कितने कमरे हैं
कुछ तो मैं भी डरा डरा सा था
क्या दिखाता है ये सफ़र देखो
ये तमन्ना है कि अब और तमन्ना न करें
कोई शय एक सी नहीं रहती
निकले थे दोनों भेस बदल के तो क्या अजब
वो भी हमारे नाम से बेगाने हो गए
बुत समझते थे जिस को सारे लोग