ज़िंदगी इस क़दर कठिन क्यूँ है
आदमी की भला ख़ता क्या है
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कुछ तो अपने लिए भी रखना है
मैं तुझ से लाख बिछड़ कर यहाँ वहाँ जाता
दर्द जब शाएरी में ढलते हैं
गुफ़्तुगू तीर सी लगी दिल में
ख़्वाबों के आसरे पे बहुत दिन जिए हो तुम
इक वही शख़्स मुझ को याद रहा
किसी क़िस्मत में एक घर निकला
कोई शय एक सी नहीं रहती
कभी ख़्वाबों में मिला वो तो ख़यालों में कभी
कैसे हो क्या है हाल मत पूछो
चाँद सूरज की तरह तुम भी हो क़ुदरत का खेल
वो पास रह के भी मुझ में समा नहीं सकता