हर शाम हुई सिंगार करना भी है
फिर रात का इंतिज़ार करना भी है
तन की मिरे चाँदी हो कि मन का सोना
साजन पर सब निसार करना भी है
Ahmad Faraz
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आता है जो मुँह में मुझे कह देती हो
दो दो मिरे मेहमान चले आते हैं
मैं उस की पुजारन वो पुजारी मेरा
आँखों में हया उस के जब आई शब-ए-वस्ल
पूछूँगी कोई बात न मुँह खोलूँगी
बाबुल के घर से जब आई उठ कर डोली
जब शाम ढली सिंगार कर के रोई