जब शाम ढली सिंगार कर के रोई
साजन का इंतिज़ार कर के रोई
जब डूब चले गगन में तारे दम-ए-सुब्ह
इक इक गहना उतार कर के रोई
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हर शाम हुई सिंगार करना भी है
मैं उस की पुजारन वो पुजारी मेरा
दो दो मिरे मेहमान चले आते हैं
पूछूँगी कोई बात न मुँह खोलूँगी
आँखों में हया उस के जब आई शब-ए-वस्ल
बाबुल के घर से जब आई उठ कर डोली
आता है जो मुँह में मुझे कह देती हो