मैं खिल नहीं सका कि मुझे नम नहीं मिला
साक़ी मिरे मिज़ाज का मौसम नहीं मिला
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दामन में आँसुओं का ज़ख़ीरा न कर अभी
दुनिया पे अपने इल्म की परछाइयाँ न डाल
ख़ामुशी छेड़ रही है कोई नौहा अपना
सुर्ख़ गुलाब और बदर-ए-मुनीर
हिरास फैल गया है ज़मीन-दानों में
तू जान-ए-मोहब्बत है मगर तेरी तरफ़ भी
रात नादीदा बलाओं के असर में हम थे
बदन चुराते हुए रूह में समाया कर
हमारी तबाही में कुछ उस का एहसाँ भी है
अब घर भी नहीं घर की तमन्ना भी नहीं है
मरता लम्हा