एक दिन उस की निगाहों से भी गिर जाएँगे
उस के बख़्शे हुए लम्हों पे बसर करते हुए
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अपनी सूरत को बदलना ही नहीं चाहता मैं
मिरे मरने का ग़म तो बे-सबब होगा कि अब के बार
हमारे काँधे पे इस बार सिर्फ़ आँखें हैं
बादा-ओ-जाम के रहे ही नहीं
तमाम उम्र ब-क़ैद-ए-सफ़र रहा हूँ मैं
देर तक जागते रहने का सबब याद आया
वो मुज़्तरिब था बहुत मुझ को दरमियाँ कर के
लम्बी है बहुत आज की शब जागने वालो
इक तू ने ही नहीं की जुनूँ की दुकान बंद
आँख ही आँख थी मंज़र भी नहीं था कोई
बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं
मैं अपने-आप से आगे निकल गया हूँ बहुत