देर तक जागते रहने का सबब याद आया
तुम से बिछड़े थे किसी मोड़ पे अब याद आया
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होश जाता रहा दुनिया की ख़बर ही न रही
मैं जिस को सोचता रहता हूँ क्या है वो आख़िर
अब जिस्म के अंदर से आवाज़ नहीं आती
मैं अपने-आप से आगे निकल गया हूँ बहुत
मिलते हो तो अब तुम भी बहुत रहते हो ख़ामोश
आँख ही आँख थी मंज़र भी नहीं था कोई
तुम थे तो हर इक दर्द तुम्हीं से था इबारत
उस से कह दो कि मुझे उस से नहीं मिलना है
सहरा कोई बस्ती कोई दरिया है कि तुम हो
तमाम उम्र ब-क़ैद-ए-सफ़र रहा हूँ मैं
उसी से पूछो उसे नींद क्यूँ नहीं आती
सितम किए हैं तो क्या तुझ से है हयात मिरी