अब जिस्म के अंदर से आवाज़ नहीं आती
अब जिस्म के अंदर वो रहता ही नहीं होगा
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अपनी सूरत को बदलना ही नहीं चाहता मैं
मिलते हो तो अब तुम भी बहुत रहते हो ख़ामोश
तो देखें और किसी को जो वो नहीं मौजूद
दिल जो टूटा है तो फिर याद नहीं है कोई
सितम किए हैं तो क्या तुझ से है हयात मिरी
आँख ही आँख थी मंज़र भी नहीं था कोई
लम्बी है बहुत आज की शब जागने वालो
आइने में कहीं गुम हो गई सूरत मेरी
हर लम्हे मैं सदियों का अफ़्साना होता है
पैरों से बाँध लेता हूँ पिछली मसाफ़तें
वो मुज़्तरिब था बहुत मुझ को दरमियाँ कर के
अजीब फ़ुर्सत-ए-आवारगी मिली है मुझे