वो मुज़्तरिब था बहुत मुझ को दरमियाँ कर के
सो पा लिया है उसे ख़ुद को राएगाँ कर के
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उसी से पूछो उसे नींद क्यूँ नहीं आती
सितम किए हैं तो क्या तुझ से है हयात मिरी
उसी के ख़्वाब थे सारे उसी को सौंप दिए
दिल जो टूटा है तो फिर याद नहीं है कोई
हर लम्हे मैं सदियों का अफ़्साना होता है
आँखों ने बनाई थी कोई ख़्वाब की तस्वीर
ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है
न चाँद का न सितारों न आफ़्ताब का है
शरीक वो भी रहा काविश-ए-मोहब्बत में
होश जाता रहा दुनिया की ख़बर ही न रही
मैं तो अब शहर में हूँ और कोई रात गए
इब्तिदा उस ने ही की थी मिरी रुस्वाई की