शरीक वो भी रहा काविश-ए-मोहब्बत में
शुरूअ उस ने किया था तमाम मैं ने किया
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जो तुम कहते हो मुझ से पहले तुम आए थे महफ़िल में
उसी से पूछो उसे नींद क्यूँ नहीं आती
मौसम कोई भी हो पे बदलता नहीं हूँ मैं
ज़ीस्त की यकसानियत से तंग आ जाते हैं सब
दिल जो टूटा है तो फिर याद नहीं है कोई
एक दिन उस की निगाहों से भी गिर जाएँगे
देर तक जागते रहने का सबब याद आया
हर लम्हे मैं सदियों का अफ़्साना होता है
मिरे मरने का ग़म तो बे-सबब होगा कि अब के बार
इक तू ने ही नहीं की जुनूँ की दुकान बंद
ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है