रौनक़-ए-बज़्म नहीं था कोई तुझ से पहले
रौनक़-ए-बज़्म तिरे बा'द नहीं है कोई
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मैं अपने-आप से आगे निकल गया हूँ बहुत
हर लम्हे मैं सदियों का अफ़्साना होता है
जो तुम कहते हो मुझ से पहले तुम आए थे महफ़िल में
अपने ही साए से हर गाम लरज़ जाता हूँ
न रात बाक़ी है कोई न ख़्वाब बाक़ी है
न चाँद का न सितारों न आफ़्ताब का है
हमारे काँधे पे इस बार सिर्फ़ आँखें हैं
मिलते हो तो अब तुम भी बहुत रहते हो ख़ामोश
नज़्म
वो चेहरा मुझे साफ़ दिखाई नहीं देता
ख़्वाब मैले हो गए थे उन को धोना चाहिए था
सुनते हैं बयाबाँ भी कभी शहर रहा था