सुनते हैं बयाबाँ भी कभी शहर रहा था
सो शहर भी इक रोज़ बयाबान रहेगा
Wasi Shah
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Jaun Eliya
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Faiz Ahmad Faiz
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न चाँद का न सितारों न आफ़्ताब का है
उस से कह दो कि मुझे उस से नहीं मिलना है
तुम थे तो हर इक दर्द तुम्हीं से था इबारत
इक तू ने ही नहीं की जुनूँ की दुकान बंद
मिलते हो तो अब तुम भी बहुत रहते हो ख़ामोश
मैं अपने-आप से आगे निकल गया हूँ बहुत
ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है
सियाह रात के पहलू में जिस्म के अंदर
जो तुम कहते हो मुझ से पहले तुम आए थे महफ़िल में
वो चेहरा मुझे साफ़ दिखाई नहीं देता
एक दिन उस की निगाहों से भी गिर जाएँगे