सियाह रात के पहलू में जिस्म के अंदर
किसी गुनाह की ख़्वाहिश को पालते रहना
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किसी ने जाँ ही लुटा दी वफ़ाओं की ख़ातिर
लम्बी है बहुत आज की शब जागने वालो
ताबिश-ए-गेसू-ए-ख़मदार लिए फिरता है
अपने ही साए से हर गाम लरज़ जाता हूँ
बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं
तेरे होने से भी अब कुछ नहीं होने वाला
इब्तिदा उस ने ही की थी मिरी रुस्वाई की
हमारे काँधे पे इस बार सिर्फ़ आँखें हैं
ये काएनात भी क्या क़ैद-ख़ाना है कोई
तो देखें और किसी को जो वो नहीं मौजूद
सितम किए हैं तो क्या तुझ से है हयात मिरी
वो चेहरा मुझे साफ़ दिखाई नहीं देता