अपने ही साए से हर गाम लरज़ जाता हूँ
मुझ से तय ही नहीं होती है मसाफ़त मेरी
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ज़ीस्त की यकसानियत से तंग आ जाते हैं सब
इक तू ने ही नहीं की जुनूँ की दुकान बंद
सियाह रात के पहलू में जिस्म के अंदर
वो चेहरा मुझे साफ़ दिखाई नहीं देता
आँख ही आँख थी मंज़र भी नहीं था कोई
मैं जिस को सोचता रहता हूँ क्या है वो आख़िर
मिलते हो तो अब तुम भी बहुत रहते हो ख़ामोश
उस से कह दो कि मुझे उस से नहीं मिलना है
अपनी सूरत को बदलना ही नहीं चाहता मैं
बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं
उसी से पूछो उसे नींद क्यूँ नहीं आती
मैं तो अब शहर में हूँ और कोई रात गए