मैं तो अब शहर में हूँ और कोई रात गए
चीख़ता रहता है सहरा-ए-बदन के अंदर
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वो चेहरा मुझे साफ़ दिखाई नहीं देता
पैरों से बाँध लेता हूँ पिछली मसाफ़तें
आँखों ने बनाई थी कोई ख़्वाब की तस्वीर
तो देखें और किसी को जो वो नहीं मौजूद
तिरी दुआएँ भी शामिल हैं कोशिशों में मिरी
आँख ही आँख थी मंज़र भी नहीं था कोई
उसी से पूछो उसे नींद क्यूँ नहीं आती
बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं
उसी के ख़्वाब थे सारे उसी को सौंप दिए
मैं अपने-आप से आगे निकल गया हूँ बहुत
उस से कह दो कि मुझे उस से नहीं मिलना है
बादा-ओ-जाम के रहे ही नहीं