बात तो ये है कि वो घर से निकलता भी नहीं
और मुझ को सर-ए-बाज़ार लिए फिरता है
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दिल जो टूटा है तो फिर याद नहीं है कोई
तमाम उम्र ब-क़ैद-ए-सफ़र रहा हूँ मैं
वो चेहरा मुझे साफ़ दिखाई नहीं देता
आइने में कहीं गुम हो गई सूरत मेरी
तिरी दुआएँ भी शामिल हैं कोशिशों में मिरी
देर तक जागते रहने का सबब याद आया
अब जिस्म के अंदर से आवाज़ नहीं आती
एक दिन उस की निगाहों से भी गिर जाएँगे
पानियों में खेल कुछ ऐसा भी होना चाहिए था
वो मुज़्तरिब था बहुत मुझ को दरमियाँ कर के
सितम किए हैं तो क्या तुझ से है हयात मिरी
पैरों से बाँध लेता हूँ पिछली मसाफ़तें